Khamosh jindagi ke bolate jajbat - 1 in Hindi Love Stories by Babul haq ansari books and stories PDF | खामोश ज़िंदगी के बोलते जज़्बात - 1

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खामोश ज़िंदगी के बोलते जज़्बात - 1

रचना: बाबुल हक अंसारी

भाग – 1: चुप्पी के उस पार


सड़कों पर रोज़ की तरह भीड़ दौड़ रही थी।

हर कोई कहीं पहुंचने की जल्दी में था।

लेकिन उन्हीं चेहरों के बीच एक चेहरा ऐसा भी था, जो न दौड़ रहा था, न रुक रहा था — बस चल रहा था... अपनी ही रफ़्तार में, जैसे किसी और ही दुनिया में हो।

उसका नाम था — नीरव।

नीरव, यानी शांत... लेकिन हकीकत में वो शांत नहीं था।

उसकी खामोशी के पीछे एक समंदर था, जो रोज़ भीतर ही भीतर उफनता था।

नीरव का जीवन एक सधे हुए रूटीन की तरह था —

सुबह तय समय पर उठना, नाश्ता करना, दफ्तर जाना, और फिर रात उसी चुपचाप कमरे में लौट आना।

कमरे में कोई शोर नहीं होता था, बस कभी-कभी पंखे की आवाज़ या किसी पुरानी किताब का पन्ना अपने आप फड़फड़ा उठता।

उसका कमरा, देखने में आम लगता था — पर उसकी दीवारें, उसकी तन्हाई की गवाह थीं।

एक कोने में किताबें बिखरी थीं, तो दूसरे कोने में एक पुरानी डायरी पड़ी थी, जिसे नीरव ने सालों से नहीं छुआ था।

उसी डायरी में उसका अतीत बंद था — वो लम्हे जो उसने कभी किसी से साझा नहीं किए।

उस रात तेज़ बारिश हो रही थी।

बिजली की चमक ने अचानक कमरे को रोशनी से भर दिया।

उसी रोशनी में नज़र पड़ी — उस डायरी पर।

नीरव कुछ पल उसे देखता रहा, फिर जैसे किसी अदृश्य ताकत के कहने पर उसने डायरी उठाई।

धूल से ढकी, कुछ पीली पड़ चुकी वो डायरी — जैसे उसी का इंतज़ार कर रही थी।

पहला पन्ना खोला —

और जैसे किसी ने उसके दिल की बात शब्दों में लिख दी हो।

नीरव की आँखें रुक गईं उस एक वाक्य पर:

"मैं बोलता नहीं, इसका मतलब ये नहीं कि मेरे अंदर कुछ नहीं जलता..."

उसका गला सूख गया।

वो पन्ने पलटता गया और हर पन्ने पर खुद को पाता गया।

और फिर एक नाम आया —

"आर्या"।

ये वही नाम था जिसे उसने कभी ज़ुबान पर नहीं लाया, पर दिल में हर रोज़ पुकारा था।

कॉलेज की लाइब्रेरी में पहली बार देखा था उसे।

सफेद दुपट्टा, किताबों से भरी गोद, और आँखों में एक अजीब-सी गहराई।

नीरव कभी उससे बोल नहीं पाया, बस उसके साथ चुपचाप बैठता रहा।

आर्या मुस्कुरा कर कहती —

"नीरव, तुम्हारी खामोशी बहुत कुछ कहती है।"

नीरव मुस्कुरा देता, लेकिन अंदर से डरता था —

डरता था कि अगर बोला, तो वो टूट जाएगा।

फिर एक दिन आर्या चली गई — बिना बताए, बिना अलविदा कहे।

उस दिन बारिश हो रही थी, और वही बेंच भीग रही थी जिस पर वो साथ बैठते थे।

नीरव वहीं बैठा रहा, लेकिन अब उसके पास सिर्फ़ खामोशी बची थी।

अब, सालों बाद, उसी डायरी ने फिर उसकी खामोशी को आवाज़ दी थी।

उसने एक खाली पन्ने पर लिखा —

"आर्या, तुम गई नहीं... तुम मेरे अंदर कहीं रह गई हो।"

उस रात पहली बार नीरव को लगा —

उसकी ख़ामोशी, अब बोलने लगी है।

 पुराने लम्हों की दस्तक


अगली सुबह नीरव ने डायरी को तकिए के नीचे रखा और ऑफिस चला गया।

लेकिन उस दिन हर चेहरा आर्या-सा लगा।

लंच ब्रेक में कॉफ़ी लेते हुए जब उसने सामने की कुर्सी खाली देखी —

तो दिल ने एक सवाल पूछा:

"क्या सब यूं ही चले जाते हैं?"

रात को लौटते वक्त वो फिर उसी बेंच के पास रुका।

बेंच गीली नहीं थी, पर उसकी आँखें ज़रूर थीं।